Friday 25 September 2020

मौत घटित होने से पहले सम्भव है मौत की तस्वीर खींचना

रूसी वैज्ञानिक किरलियान ने विकसित की 'हाई फ्रिकेंसी फोटोग्राफी'

एक दूसरे रूसी वैज्ञानिक किरलियान ने 'हाई फ्रिकेंसी फोटोग्राफी' विकसित की है। वह शायद आने वाले भविष्य में सबसे अनूठा प्रयोग सिद्ध होगा। अगर मेरे हाथ का चित्र लिया जाए, 'हाईफ्रिकेंसी फोटोग्राफी' से, जो कि बहुत संवेदनशील प्लेट्स पर होती है, तो मेरे हाथ का चित्र सिर्फ नहीं आता, मेरे हाथ के आसपास जो किरणें मेरे हाथ से निकल रही हैं, उनका चित्र भी आता है। और आश्रर्य की बात तो यह है कि अगर मैं निषेधात्मक विचारों से भरा हुआ हूं तो मेरे हाथ के आसपास जो विद्युत—पैटर्न, जो विद्युत के जाल का चित्र आता है, वह रुग्ण, बीमार, अस्वस्थ और 'केआटिक', अराजक होता है — विक्षिप्त होता है। जैसे किसी पागल आदमी ने लकीरें खींची हों। अगर मैं शुभ भावनाओं से, मंगल—भावनाओं से भरा हुआ हूं आनंदित हूं 'पाजिटिव'हूं प्रफुल्लित हूं प्रभु के प्रति अनुग्रह से भरा हुआ हूं तो मेरे हाथ के आसपास जो किरणों का चित्र आता है, किरलियान की फोटोग्राफी से,वह 'रिद्मिमक', लयबब्द, सुन्दरल, 'सिमिट्रिकल ', सानुपातिक, और एक और ही व्यवस्था में निर्मित होता है।

किरलियान का कहना है — और किरलियान का प्रयोग तीस वर्षों की मेहनत है — किरलियान का कहना है कि बीमारी के आने के छह महीने पहले शीघ्र ही हम बताने में समर्थ हो जायेंगे कि यह आदमी बीमार होनेवाला है। क्योंकि इसके पहले कि शरीर पर बीमारी उतरे, वह जो विद्युत का वर्तुल है उस पर बीमारी उतर जाती है। मरने के पहले,इसके पहले कि आदमी मरे, वह विद्युत का वर्तुल सिकुड़ना शुरू हो जाता है और मरना शुरू हो जाता है। इसके पहले कि कोई आदमी हत्या करे किसी की, उस विद्युत के वर्तुल में हत्या के लक्षण शुरू हो जाते हैं। इसके पहले कि कोई आदमी किसी के प्रति करुणा से भरे, उस विद्युत के वर्तुल में करुणा प्रवाहित होने के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं।

किरलियान का कहना है कि केंसर पर हम तभी विजय पा सकेंगे जब शरीर को पकड़ने के पहले हम केंसर को पकड़ लें। और यह पकड़ा जा सकेगा। इसमें कोई विधि की भूल अब नहीं रह गयी है। सिर्फ प्रयोगों के और फैलाव की जरूरत है। प्रत्येक मनुष्य अपने आसपास एक आभामंडल लेकर, एक अति लेकर चलता है। आप अकेले ही नहीं चलते, आपके आसपास एक विद्युत—वर्तुल, एक 'इलेक्ट्रो—डायनेमिक—फील्ड ' प्रत्येक व्यक्ति के आसपास चलता है। व्य क्ति के आसपास ही नहीं, पशुओं के आसपास भी, पौधों के आसपास भी। असल में रूसी वैज्ञानिकों का कहना है कि जीव और अजीव में एक ही फर्क किया जा सकता है, जिसके ' आसपास आभामंडल है वह जीवित है और जिसके पास आभामंडल नहीं है, वह मृत है।

जब आदमी मरता है तो मरने के साथ ही आभामंडल क्षीण होना शुरू हो जाता है। बहुत चकित करनेवाली और संयोग की बात है कि जब कोई आदमी मरता है तो तीन दिन लगते हैं उसके आभामंडल के विसर्जित होने में। हजारों साल से सारी दुनिया में मरने के बाद तीसरे दिन का बड़ा मूल्य रहा है। जिन लोगों ने उस तीसरे दिन को — तीसरे को इतना मूल्य दिया था, उन्हें किसी न किसी तरह इस बात का अनुभव होना ही चाहिए, क्योंकि वास्तविक मृत्यु तीसरे दिन घटित होती है। इन तीन दिनों के बीच, किसी भी दिन वैज्ञानिक उपाय खोज लेंगे, तो आदमी को पुनरुज्जीवित किया जा सकता है। जब तक आभामंडल नहीं खो गया, तब तक जीवन अभी शेष है। हृदय की धड़कन बन्द हो जाने से जीवन समाप्त नहीं होता। इसलिए पिछले महायुद्ध में रूस में छह व्यक्तियों को हृदय की धड़कन बंद हो जाने के बाद पुनरुज्जीवित किया जा सका। जब तक आभामंडल चारों तरफ है, तब तक व्यक्ति सूक्ष्म तल पर अभी भी जीवन में वापस लौट सकता है। अभी सेतु कायम है। अभी रास्ता बना है वापस लौटने का।

जो व्यक्ति जितना जीवंत होता है, उसके आसपास उतना बड़ा आभामंडल होता है। हम महावीर की मूर्ति के आसपास एक आभामंडल निर्मित करते हैं — या कृष्ण, या राम, क्राइस्ट के आसपास — तो वह सिर्फ कल्पना नहीं है। वह आभामंडल देखा जा सकता है। और अब तक तो केवल वे ही देख सकते थे जिनके पास थोड़ी गहरी और सूक्ष्म—दृष्टि हो — मिस्टिक्स, संत, लेकिन 193० में एक अंग्रेज वैज्ञानिक ने अब तो केमिकल, रासायनिक प्रक्रिया निर्मित कर दी है जिससे प्रत्येक व्यक्ति — कोई भी — उस माध्यम से, उस यंत्र के माध्यम से दूसरे के आभामंडल को देख सकता है।

आप सब यहां बैठे है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी आभामंडल है। जैसे आपके अंगूठे की छाप निजी—निजी है वैसे ही आपका आभामंडल भी निजी है। और आपका आभामंडल आपके संबंध में वह सब कुछ कहता है जो आप भी नहीं जानते। आपका आभामंडल आपके संबंध में बातें भी कहता है जो भविष्य में घटित होंगी। आपका आभामंडल वे बातें भी कहता है जो अभी आपके गहन अचेतन में निर्मित हो रही हैं, बीज की भांति, कल खिलेगी और प्रगट होंगी।

मंत्र आभामंडल को बदलने की आमूल प्रक्रिया है। आपके आसपास की स्पेस, और आपके आसपास का 'इलेक्ट्रो—डायनेमिक—फील्ड ' बदलने की प्रक्रिया है। और प्रत्येक धर्म के पास एक महामंत्र है। जैन परम्परा के पास नमोकार है — आश्रर्यकारक घोषणा — एसो पंचनमुकारो, सब्बपावप्पणासणो। सब पाप का नाश कर दे, ऐसा महामंत्र हैनमोकार। ठीक नहीं लगता। नमोकार से कैसे पाप नष्ट हो जाएगा?नमोकार से सीधा पाप नष्ट नहीं होता, लेकिन नमोकार से आपके आसपास 'इलेक्ट्रो— डायनेमिक—फील्ड ' रूपांतरित होता है और पाप करना असंभव हो जाता है। क्योंकि पाप करने के लिए आपके पास एक खास तरह का आभामंडल चाहिए। अगर इस मंत्र को सीधा ही सुनेंगे तो लगेगा कैसे हो सकता है? एक चोर यह मंत्र पढ लेगा तो क्या होगा? एक हत्यारा यह मंत्र पढ लेगा तो क्या होगा? कैसे पाप नष्ट हो जाएगा? पाप नष्ट होता है इसलिए, कि जब आप पाप करते हैं, उसके पहले आपके पास एक विशेष तरह का, पाप का आभामंडल चाहिए — उसके बिना आप पाप नहीं कर सकते — वह आभामंडल अगर रूपांतरित हो जाए तो असंभव हो जाएगी बात, पाप करना असंभव हो जाएगा।

यह नमोकार कैसे उस आभामंडल को बदलता होगा? यह नमस्कार है, यह नमन का भाव है। नमन का अर्थ है समर्पण। यह शाब्दिक नहीं है। यह नमो अरिहंताणं, यह अरिहंतों को नमस्कार करता हूं यह शाब्दिक नहीं है, ये शब्द नहीं हैं, यह भाव है। अगर प्राणों में यह भाव सघन हो जाए कि अरिहंतों को नमस्कार करता हूं तो इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है, जो जानते हैं उनके चरणों में सिर रखता हूं। जो पहुंच गए हैं, उनके चरणों में समर्पित करता हूं। जो पा गए हैं, उनके द्वार पर मैं भिखारी बनकर खड़ा होने को तैयार हूं।

किरलियान की फोटोग्राफी ने यह भी बताने की कोशिश की है कि आपके भीतर जब भाव बदलते हैं तो आपके आसपास का विद्युत—मंडल बदलता है। और अब तो ये फोटोग्राफ उपलब्ध हैं। अगर आप अपने भीतर विचार कर रहे हैं चोरी करने का, तो आपका आभामंडल और तरह का हो जाता है — उदास, रुग्ण, खूनी रंगों से भर जाता है। आप किसी को, गिर गये को उठाने जा रहे हैं — आपके आभामंडल के रंग तत्काल बदल जाते हैं।
                                   --ओशो

Friday 11 September 2020

दस रुपए का नोट और गणेश जी की कृपा

 11 सितंबर 2020:आध्यात्मिक बातें 
 ठाकुर जी ने समझाया परमसत्ता के हिसाब किताब का मर्म 
लुधियाना: 11 सितंबर 2020: (मीडिया लिंक रविंद्र//आराधना टाईम्ज़)::
पत्रकारिता में अपनी मेहनत और जुनून से आगे बढ़ने वालों में वह बहुत ही जानामाना नाम बन गया था। प्रिंट मीडिया में काफी अच्छा नाम कमाने के बाद उसने बड़ी छलांग लगाई और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी चमक उठा। यह शायद 90 के दशक की आखिरी तिमाही शुरू होने से भी पहले का ही कुछ वक़्त था।
जिस पत्रकार की बात कर रहा हूं उसके नाम का ज़िक्र फिर कभी सही। फ़िलहाल नाम का ज़िक्र यहां उचित भी नहीं लग रहा क्यूंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आघात जैसा महसूस होने का चोटिल सा अहसास हो सकता है। फिर भी काम चलाने को आप उसे एस एस डी कह सकते हैं अर्थात शुद्ध अंग्रेजी में SSD होगा। 
हम अधिकतर दोस्त उसे आम तौर पर इसी तरह के एक अन्य नाम से बुलाया करते थे। उसने ज़मीनी हकीकतों को नज़दीक से देखा था। हर कोई सच का सामना नहीं कर पाता। कई हकीकतों को कई लोगों ने खुद भी बेहद नज़दीक से देखना चाहा लेकिन बहुत से ऐसे सच वक़्त और हालात ने भी उनके सामने ला रखे जिनकी कल्पना उन्होंने सपने में भी नहीं की थी। इसलिए ज़िंदगी के रंग बहुत अजीब से भी लगने लगते हैं।
एक दिन हम कहीं जा रहे थे। दोनों की जेब भी खाली थी और ऊपर से स्कूटर अचानक रुक गया। तेल की टैंकी भी खाली हो गई थी। उस टूटे फूटे स्कूटर ने हमारा बहुत साथ दिया था। उसका सफेद रंग था इसलिए हम उसे चिट्टा घोड़ा कहा करते। अपने घोड़े को इतनी शाबाशी तो कोई तांगेवाला भी न देता होगा जितनी शाबाशी उस टूटे फूटे सफेद स्कूटर को हम दिया करते थे। 
कुछ कदम तक स्कूटर को ठेलते हुए पैदल चल कर जब सांस फूलने लगी तो एक साथ दो नाम हमारे ध्यान में आये। सोचा इनसे पैसे मांग लेते हैं। उन दिनों दस रूपये में तेल डलवा कर हम इतना खुश हो लेते थे कि न जाने कितनी मंज़िलें सर कर ली हों। ज़्यादा बड़ी बात यह होती कि बहुत ही मेहनत से लिखी खबर को फैक्स वाले पीसीओ तक पहुंच कर अख़बार के दफ्तर प्रेषित कर सकेंगे। खबर को अगले दिन की अख़बार में कितनी जगह मिलती है इसकी इंतज़ार भी कम रोमांचिक नहीं होती थी। खैर जब तेल खत्म हुआ तो उस समय हम लुधियाना की घुमार मंडी में के इलाके में थे और पहुंचना था प्रीत पैलेस से कुछ आगे स्थित दीवान पीसीओ पर।
सो इस मकसद के लिए एक जानकार से मैंने पैसे मांगें और दुसरे से एस एस डी ने। हम तो यह सोच कर दोनों के पास अलग अलग गए थे तांकि अगर एक ने इंकार किया तो दूसरा दे देगा। लेकिन यहां तो दोनों से दोनों को ही मिल गए। हम सोच रहे थे कि दस रुपयों का तेल डलवाने के बाद अब पांच रूपये के दो दो कुलचे छोले खा लिए जाये और पांच रूपये की चाय पी ली जाये। यूं तो उन दिनों पांच रूपये के तीन कुलचे छोले आते थे लेकिन रोज़ का लिहाज़ था और हमें लगता था कि आज पांच रुपयों के वह चार कुलचे छोले दे देगा। उसने सचमुच दे भी दिए। इससे थोड़ा भूख शांत होने की उम्मीद थी।
इतने में ही एक हाथी दूर से सड़क का मोड़ मुड़ता हुआ दिखाई दिया और एस एस डी ने दस का वही इकलौता नोट हाथी वालों के साथ चलते काफिले की तरफ बढ़ा दिया यह कह कर कि गणेश जी हमारे दुःख दर्द दूर करेंगे। कमाल की बात कि उस हाथी के साथ चल रहे साधु बाबाओं का हाथ नोट तक पहुंचने से पहले हाथी ने सूंढ़ लम्बी करके वह दस रूपये का नोट पकड़ लिया। सीन बहुत ही अच्छा बन गया था लेकिन मुझे गुस्सा बहुत आया। इसी दस रूपये वाले नोट के दम पर तो हमने चाय भी पी ली थीऔर छोले कुलचे भी खा लिए थेअब इसके पैसे कहां से देंगें। दस का नोट तो अब गणेश जी को दे दिया।
मुझे गुस्से में आया देख कर एस एस डी बोला बाबा जी चिंता मत करो। मुझे उन दिनों सभी लोग बाबा जी कहा करते थे। एस एस डी ने अपनी बात जारी रखी। गणेश जी सब ठीक कर देंगें। हाथी जी का और उनको पालने वाले काफिले वालों का खर्चा भी तो इसी तरह चलता है। हमारे खर्चे के लिए भी गणेश जी कुछ सोचते होंगें। मुझे एस एस डी कभी भी इतना गंभीर नहीं लगा था। मुझे लगा सिख परिवार में पैदा होने के बावजूद सिगरेटें पीते पीते यह एस एस डी अब पूरी तरह हिन्दु रंग में रंग गया है। हालांकि इसी एस एस डी ने सिख संघर्ष पर बनी एक जानीमानी और बहुचर्चित फिल्म में भी सक्रियता से योगदान दिया। उन दिनों तो यही लगने लगा था कि कहीं एस एस डी बाकायदा अमृत छक कर सिंघ तो नहीं सज गया।  उसके बारे में आ रहे ख्यालों के साथ साथ ही यह भी महसूस होने लगा कि दुनिया की आर्थिकता कितनी गहराई से आपस में जुड़ी हुई है। कुदरत एक दुसरे को एक दुसरे का सहायक बनाये रखती है। एस एस डी के "प्रवचनों" का मनन करते हुए  चाय के आखिरी घूंट मैं इसी चिंता के साथ पी रहा था कि अब चाय समाप्त होने के बाद चाय वाले को पैसों के उधार  चक्कर कैसे कहना है! चाय की चुस्कियां लेते लेते मैं चाह रहा था कि चाय का गिलास तब तक खत्म न हो जब तक चाय वाले को आज फिर उधारी वाली बात कहने की हिम्मत मुझमें नहीं आ जाती।
इतने में ही हमारे दो तीन अमीर दोस्त उधर आ निकले और हमारे औपचारिकता वश मना करने के बावजूद सारे का सारा बिल उन्होंने ही दे दिया। मुझे यह सब किसी करिश्मे से कम नहीं लग रहा था। बिल अदा हो चुका तो मुझे खत्म हो चुकी चाय का स्वाद अब आया। सोचा इसी ख़ुशी में चाय का एक कप और पी लिया जाए लेकिन मन में आया लालच अच्छा नहीं होता।  यूं भी अभी बाकी बहुत से बिल बकाया थे। फैक्स का बिल। अपनी जेब के खर्चे। रोज़ गार्डन के पास लिए गए कमरे का किराया। घर का राशन। बहुत सी चिंताएं थी। मन में गिला शिकवा सा भी आ गया और मन में उठा सवाल, "गणेश जी आप ने हमारे लिए सिर्फ चाय का बिल ही देना था क्या? अब बाकी सब का हम क्या करें? अब किस से मांगें कुछ और?" सवाल हमारे दिल और दिमाग से निकल कर शायद रुक  रही ठंडी ठंडी हवा में गम हो गया।  
चाय वाली दुकान के उस गर्म माहौल से बाहर  निकलते ही हवा की ठंडक फिर से चेहरे पर महसूस हुई तो साथ ही वहां चल रहे ट्रांज़िस्टर पर एक पुराना गीत bhi शुरू हो गया,
"जहां ठंडी ठंडी हवा चल रही है--
किसी की मोहब्बत वहां जल रही है.....!" 
मैंने एस एस डी से कहा ज़रा रुको यह गीत पूरा सुन लेने दो। जवाब में वह बोला जिसका दिल आपके लिए या जिसके लिए आपका दिल जल रहा है न वह पीएयू के जर्नलिज़्म डिपार्टमेंट वाली कैंटीन पर आपका इंतज़ार कर रही है। मुझसे उसका झगड़ा चल रहा था  मैं बहुत ही हैरान भी हुआ और पूछा तुम्हे कैसे मालूम?  
जवाब में एस एस डी ने कहा आज सुबह टेलीफोन पर बात हुई थी। आज आपका झगड़ा सुलझाना है। आज गुस्सा छोडो और उसके साथ चाय पी लो। साथ में केक और पेस्ट्री का प्रबंध भी होगा। आज पार्टी मेरी तरफ से। मन में तुरंत ख़ुशी, उत्साह और हैरानी की मिलीजुली सी लहर भी उठी। वह उन दिनों एक अंग्रेजी अख़बार में काम करती थी और कार में आती जाती थी। कभी कभी उसकी कार और कोठी देख कर मन में इंफियरिटी कम्प्लेक्स भी आता लेकिन जल्द ही बात आई गई  हो जाती।  
हम उस तरफ जाने के लिए
 स्कूटर स्टार्ट कर रहे थे कि अचानक कांग्रेस के चुनावी इंचार्ज रह चुके प्यारा सिंह ढिल्लों हमारे सामने हमारे बिलकुल पास आ कर रुके। एक बार फिर चाय का आर्डर उन्होंने भी दे दिया। हमने कहा भी कि हमने चाय पी है लेकिन वह कहने लगे कुछ ज़रूरी बात करनी है बैठ कर ही हो सकेगी बाकी चाय का क्या है यह तो सर्दी में पता ही नहीं लगता। 
वहां बैठते ही उन्होंने हमें चुनाव के दिनों में प्रकाशित हुए विज्ञापनों के बाकी बचे पैसे दे दिए जो काफी देर से उनकी पार्टी की तरफ रुके हुए थे। अब हम दोनों को पच्चीस पच्चीस सो रूपये मिल चुके थे। उस ज़माने में यह रकम बहुत बड़ी थी। इसके साथ ही हमें पंख लग गए। हमने उन्हें आभार व्यक्त किया। फैक्स का बिल दिया। तेल भी और डलवाया और घर का कुछ राशन भी लिया। खबरें लिखने का जोश फिर से दोगुना हो गया। इसके साथ ही समझ आया कि गणेश जी को दिए दस रूपये व्यर्थ नहीं गए थे। वे कितना कुछ ले कर लौटे। उसी दिन यह भी समझ आया कि हम सभी आपस में किसी अदृश्य तार से जुड़े हुए होते हैं। हम दूसरों का ध्यान रखेंगे तो दुसरे भी हमसे इसी तरह पेश आएंगे। हम सभी किसी न किसी   कुछ लगते हैं। 
मुझे यह घटना और बाकी सब कुछ पूरी तरह भूल चुका था लेकिन अचानक एक दिन नामधारी समुदाय के सद्गुरु ठाकुर दलीप सिंह जी के प्रवचनों को सुनते हुए याद आया कि ऐसी संवेदना, ऐसा अहसास केवल भारत में ही सम्भव है। पत्थर में भी भगवान का अहसास कर लेना, चांद को भी मामा कह कर पुकारना, धरती को मां कहना, पहाड़ों में भी ईश्वरीय सत्ता को महसूस कर लेना, वायु में भी देवता की शक्ति को महसूस करना, जल में भी दिव्यता से भरी शक्ति का पान करना क्या ऐसी आस्था कहीं और मिलती है?  है न मेरा भारत महान! क्या दुनिया के किसी और कोने में ऐसा विश्वास कहीं मिलता है? ठाकुर जी कहते हैं है तो सारी दुनिया उसीके रंग में रंगी हुई लेकिन भारत पर भगवान की विशेष कृपा रही है। हमारे कर्मों ने ही समाज की दुर्दशा की है। पूजा, पाठ और पवित्रता के जीवन को अपनाते ही उसकी कृपा बरसनी शुरू हो जाती है। 
मुझे यह बातें कभी जचती और कभी नहीं भी जचती लेकिन एक दिन तो हद हो गयी। एक धार्मिक आयोजन में ठाकुर जी के काफी नज़दीक खड़ा था। किसी ख़ास दृश्य को कैमरे में कैद करने के लिए। किसी श्रद्धालु ने अपनी सभी जेबें टटोल कर दस रूपये का मैला कुचैला सा नोट निकाला और ठाकुर जी के सामने रख दिया। श्रद्धालु की उम्र 50 के  होगी। मुझे उस नोट की हालत देख कर कुछ घृणा सी हुई। इतना मैला कुचैला नोट! पसीने से भीगा हुआ! क्या इसने यही नोट यहां माथा टेकना था?
वह तो चला गया लेकिन मेरा मन अजीब सा बना रहा। मेरे मन की भावना और चेहरे के हावभाव को भांपते हुए ठाकुर जी बोले यह दस रूपये का नोट इसकी मेहनत की कमाई का अनमोल हिस्सा है। यह दस लाख रुपयों से भी बढ़ कर है। गरीब मज़दूर जब एक पैसा भी दे तो वह अनमोल होता है। इसी को भाग लगते हैं। देखना एक दिन यही शख्स कितने पैसे  बनेगा। मेरे मन की आशंका जाने का नाम नहीं ले रही थी। बहुत देर तक मैं हैरानी भरे सदमे की स्थिति में रहा।
मैं कैमरा लिए कवरेज कर रहा था कि अचानक ही ठाकुर जी ने मुझे नज़दीक आने का इशारा किया। पास हुआ तो उन्होंने कान में कहा याद है एक बार गणेश जी ने आप लोगों के दस रूपये बहुत स्नेह और सम्मान से कबूल किये थे। उसके बाद आपका भी सब नक्शा ही बदल गया था।  
पहले तो मैं कुछ सकपकाया लेकिन बाद में सब याद आ गया। मेरी आँखें भर आई। यह बात भी आई गई हो गई लेकिन आज सोचा इसे लिख कर सहेज ही लूं।
मैं हैरान था करीब बीस वर्षों से भी अधिक पुरानी यह बात ठाकुर जी कैसे जानते हैं? ठाकुर जी की बात सुन कर मैं काफी देर हैरानी भरे अजीब से सदमे में रहा। मुझे एक बार फिर अहसास हुआ कि समस्त दुनिया किसी परमसत्ता की देखरेख में ही है। हम मानें या न मानें लेकिन बहुत कुछ ऐसा होता है जो हमारे किये से कभी नहीं होता लेकिन जब ऊपर वाला चाहे तो बिगड़ा हुआ काम भी झट से बन जाता है। इसी सिलसिले की कुछ और बातें अलग पोस्टों में भी होंगीं। फ़िलहाल इतना ही। --मीडिया लिंक रविंद्र 

संत बाबा देवरहा की सच्ची कहानी डाक्टर भारत की ज़ुबानी

900 वर्ष तक जीने वाले  बाबा  के पास खेचरी मुद्रा की सिद्धि भी थी 
 एक ऐसे संत जिसके पैरो के नीचे अपना सिर रखने नेता व अंग्रेज तक आते थे! 
 परम पूज्य गुरदेव देवरहा बाबा के जीवन काल की  सच्ची बातें बता रहे हैं डाक्टर भारत 
देवरहा बाबा का जन्म अज्ञात है। यहाँ तक कि उनकी सही उम्र का आकलन भी नहीं है। वह यूपी के देवरिया जिले के रहने वाले थे। मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। कहा जाता है कि वह करीब 900 साल तक जिन्दा थे। (बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं.)
भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे देवरहा बाबा. डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था. पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे. प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी।श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है। जनश्रूति के मुताबिक, वह खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन से कहीं भी कभी भी चले जाते थे। उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में कांटे नहीं होते थे। चारों तरफ सुंगध ही सुंगध होता था। लोगों में विश्वास है कि बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया. बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे। मार्कण्डेय सिंह के मुताबिक, वह किसी महिला के गर्भ से नहीं बल्कि पानी से अवतरित हुए थे। यमुना के किनारे वृन्दावन में वह 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे। उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवारों को वह पल भर में काबू कर लेते थे। लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई। वह अवतारी व्यक्ति थे। उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था।वह फोटो कैमरे और टीवी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। वह उनसे अपनी फोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी। उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था। अपनी उम्र, कठिन तप और सिद्धियों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी भी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया। लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ ऐसी भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजते देखी गई।अत्यंत सहज, सरल और सुलभ बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें अपने बचपन में देखा था। देश-दुनिया के महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधू-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था। उनसे जुड़ीं कई घटनाएं इस सिद्ध संत को मानवता, ज्ञान, तप और योग के लिए विख्यात बनाती हैं। मुझे अच्छी तरह याद है और मैं वहाँ मौजूद भी था। कोई 1987 की बात होगी, जून का ही महीना था। वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था। अधिकारियों में अफरातफरी मची थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बाबा के दर्शन करने आना था।प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गई।आला अफसरों ने हैलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिए। भनक लगते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अफसर को बुलाया और पूछा कि पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? अफसर ने कहा, प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जरूरी है. बाबा बोले, तुम यहां अपने पीएम को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पीएम का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन इसका दंड तो बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा!वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? नही! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा। अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का है, इसलिए इसे काटा ही जाएगा और फिर पूरा पेड़ तो नहीं कटना है, इसकी एक टहनी ही काटी जानी है, मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए। उन्होंने कहा कि यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है, यह पेड़ नहीं कट सकता। 
इस घटनाक्रम से बाकी अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी, आखिर बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब पीएम का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं। आश्चर्य कि दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया कि प्रोग्राम स्थगित हो गया है, कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आए, लेकिन पेड़ नहीं कटा। इसे क्या कहेंगे चमत्कार या संयोग। बाबा की शरण में आने वाले कई विशिष्ट लोग थे।  उनके भक्तों में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं।  उनके पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे। सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे। योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था। ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे। कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाता, तो वह संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते। लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया. ध्यान, प्रणायाम, समाधि की पद्धतियों के वह सिद्ध थे ही। धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद करते थे। उन्होंने जीवन में लंबी लंबी साधनाएं कीं। जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर था।  
देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गांधी हार गईं तो वह भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। उन्होंने अपने हाथ के पंजे से उन्हें आशीर्वाद दिया. वहां से वापस आने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया। इसके बाद 1980 में इंदिरा के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और वह देश की प्रधानमंत्री बनीं। वहीं, यह भी मान्यता है कि इन्दिरा गांधी आपातकाल के समय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गयीं थी। वहां उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया और हाथ का पंजा पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा। बाबा महान योगी और सिद्ध संत थे। उनके चमत्कार हज़ारों लोगों को झंकृत करते रहे। आशीर्वाद देने का उनका ढंग निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो गया। पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे। उनके आश्रम में बबूल तो थे, मगर कांटेविहीन। यही नहीं यह खुशबू भी बिखेरते थे। 
उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था। बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे। उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया। दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया। श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था। देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे। ख्याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया। दरअसल, इंग्लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इंडिया के साधु संत महान होते हैं। प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना। यह सन 1911 की बात है। जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी। उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं।डाक्टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने माता-पिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे। बाबा देखते ही बोल पड़े-यह बच्चा तो राजा बनेगा। बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन 54 के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया। बाबा देवरहा 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे। उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे। उनके भक्त उन्हें दया का महासमुंदर बताते हैं। और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्तज लुटाई। जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया। वितरण में कोई विभेद नहीं। वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा। मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है। कहा जाता है कि बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है। दिव्यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी। याददाश्त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्प्युटर की तरह। हां, बलिष्ठ कदकाठी भी थी. लेकिन देह त्याहगने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे। उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता। लकडी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। मइल में वे साल में आठ महीना बिताते थे। कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे। खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्तनगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया। उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैकडों लोगों की भीड हर जगह जुटती थी और फिर अचानक 11 जून 1990 को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया। लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है। मौसम तक का मिजाज बदल गया।  यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं। मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे। डॉक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड निकलने पर आमादा है। उस दिन 11 तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी। आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं। यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी।  लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा। और इन्हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्पंदनरहित हो गया। भक्तों की अपार भीड भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी। जय सद्गुरुदेव। 
--डॉक्टर भारत अध्यक्ष फर्स्ट इन्वेस्टीगेशन ब्यूरो FIB व अध्यात्म विज्ञान लेखक द्वारा अग्रेषित