11 सितंबर 2020:आध्यात्मिक बातें
ठाकुर जी ने समझाया परमसत्ता के हिसाब किताब का मर्म
लुधियाना: 11 सितंबर 2020: (मीडिया लिंक रविंद्र//आराधना टाईम्ज़)::
पत्रकारिता में अपनी मेहनत और जुनून से आगे बढ़ने वालों में वह बहुत ही जानामाना नाम बन गया था। प्रिंट मीडिया में काफी अच्छा नाम कमाने के बाद उसने बड़ी छलांग लगाई और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी चमक उठा। यह शायद 90 के दशक की आखिरी तिमाही शुरू होने से भी पहले का ही कुछ वक़्त था।
जिस पत्रकार की बात कर रहा हूं उसके नाम का ज़िक्र फिर कभी सही। फ़िलहाल नाम का ज़िक्र यहां उचित भी नहीं लग रहा क्यूंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आघात जैसा महसूस होने का चोटिल सा अहसास हो सकता है। फिर भी काम चलाने को आप उसे एस एस डी कह सकते हैं अर्थात शुद्ध अंग्रेजी में SSD होगा।
हम अधिकतर दोस्त उसे आम तौर पर इसी तरह के एक अन्य नाम से बुलाया करते थे। उसने ज़मीनी हकीकतों को नज़दीक से देखा था। हर कोई सच का सामना नहीं कर पाता। कई हकीकतों को कई लोगों ने खुद भी बेहद नज़दीक से देखना चाहा लेकिन बहुत से ऐसे सच वक़्त और हालात ने भी उनके सामने ला रखे जिनकी कल्पना उन्होंने सपने में भी नहीं की थी। इसलिए ज़िंदगी के रंग बहुत अजीब से भी लगने लगते हैं।
एक दिन हम कहीं जा रहे थे। दोनों की जेब भी खाली थी और ऊपर से स्कूटर अचानक रुक गया। तेल की टैंकी भी खाली हो गई थी। उस टूटे फूटे स्कूटर ने हमारा बहुत साथ दिया था। उसका सफेद रंग था इसलिए हम उसे चिट्टा घोड़ा कहा करते। अपने घोड़े को इतनी शाबाशी तो कोई तांगेवाला भी न देता होगा जितनी शाबाशी उस टूटे फूटे सफेद स्कूटर को हम दिया करते थे।
कुछ कदम तक स्कूटर को ठेलते हुए पैदल चल कर जब सांस फूलने लगी तो एक साथ दो नाम हमारे ध्यान में आये। सोचा इनसे पैसे मांग लेते हैं। उन दिनों दस रूपये में तेल डलवा कर हम इतना खुश हो लेते थे कि न जाने कितनी मंज़िलें सर कर ली हों। ज़्यादा बड़ी बात यह होती कि बहुत ही मेहनत से लिखी खबर को फैक्स वाले पीसीओ तक पहुंच कर अख़बार के दफ्तर प्रेषित कर सकेंगे। खबर को अगले दिन की अख़बार में कितनी जगह मिलती है इसकी इंतज़ार भी कम रोमांचिक नहीं होती थी। खैर जब तेल खत्म हुआ तो उस समय हम लुधियाना की घुमार मंडी में के इलाके में थे और पहुंचना था प्रीत पैलेस से कुछ आगे स्थित दीवान पीसीओ पर।
सो इस मकसद के लिए एक जानकार से मैंने पैसे मांगें और दुसरे से एस एस डी ने। हम तो यह सोच कर दोनों के पास अलग अलग गए थे तांकि अगर एक ने इंकार किया तो दूसरा दे देगा। लेकिन यहां तो दोनों से दोनों को ही मिल गए। हम सोच रहे थे कि दस रुपयों का तेल डलवाने के बाद अब पांच रूपये के दो दो कुलचे छोले खा लिए जाये और पांच रूपये की चाय पी ली जाये। यूं तो उन दिनों पांच रूपये के तीन कुलचे छोले आते थे लेकिन रोज़ का लिहाज़ था और हमें लगता था कि आज पांच रुपयों के वह चार कुलचे छोले दे देगा। उसने सचमुच दे भी दिए। इससे थोड़ा भूख शांत होने की उम्मीद थी।
इतने में ही एक हाथी दूर से सड़क का मोड़ मुड़ता हुआ दिखाई दिया और एस एस डी ने दस का वही इकलौता नोट हाथी वालों के साथ चलते काफिले की तरफ बढ़ा दिया यह कह कर कि गणेश जी हमारे दुःख दर्द दूर करेंगे। कमाल की बात कि उस हाथी के साथ चल रहे साधु बाबाओं का हाथ नोट तक पहुंचने से पहले हाथी ने सूंढ़ लम्बी करके वह दस रूपये का नोट पकड़ लिया। सीन बहुत ही अच्छा बन गया था लेकिन मुझे गुस्सा बहुत आया। इसी दस रूपये वाले नोट के दम पर तो हमने चाय भी पी ली थीऔर छोले कुलचे भी खा लिए थेअब इसके पैसे कहां से देंगें। दस का नोट तो अब गणेश जी को दे दिया।
मुझे गुस्से में आया देख कर एस एस डी बोला बाबा जी चिंता मत करो। मुझे उन दिनों सभी लोग बाबा जी कहा करते थे। एस एस डी ने अपनी बात जारी रखी। गणेश जी सब ठीक कर देंगें। हाथी जी का और उनको पालने वाले काफिले वालों का खर्चा भी तो इसी तरह चलता है। हमारे खर्चे के लिए भी गणेश जी कुछ सोचते होंगें। मुझे एस एस डी कभी भी इतना गंभीर नहीं लगा था। मुझे लगा सिख परिवार में पैदा होने के बावजूद सिगरेटें पीते पीते यह एस एस डी अब पूरी तरह हिन्दु रंग में रंग गया है। हालांकि इसी एस एस डी ने सिख संघर्ष पर बनी एक जानीमानी और बहुचर्चित फिल्म में भी सक्रियता से योगदान दिया। उन दिनों तो यही लगने लगा था कि कहीं एस एस डी बाकायदा अमृत छक कर सिंघ तो नहीं सज गया। उसके बारे में आ रहे ख्यालों के साथ साथ ही यह भी महसूस होने लगा कि दुनिया की आर्थिकता कितनी गहराई से आपस में जुड़ी हुई है। कुदरत एक दुसरे को एक दुसरे का सहायक बनाये रखती है। एस एस डी के "प्रवचनों" का मनन करते हुए चाय के आखिरी घूंट मैं इसी चिंता के साथ पी रहा था कि अब चाय समाप्त होने के बाद चाय वाले को पैसों के उधार चक्कर कैसे कहना है! चाय की चुस्कियां लेते लेते मैं चाह रहा था कि चाय का गिलास तब तक खत्म न हो जब तक चाय वाले को आज फिर उधारी वाली बात कहने की हिम्मत मुझमें नहीं आ जाती।
इतने में ही हमारे दो तीन अमीर दोस्त उधर आ निकले और हमारे औपचारिकता वश मना करने के बावजूद सारे का सारा बिल उन्होंने ही दे दिया। मुझे यह सब किसी करिश्मे से कम नहीं लग रहा था। बिल अदा हो चुका तो मुझे खत्म हो चुकी चाय का स्वाद अब आया। सोचा इसी ख़ुशी में चाय का एक कप और पी लिया जाए लेकिन मन में आया लालच अच्छा नहीं होता। यूं भी अभी बाकी बहुत से बिल बकाया थे। फैक्स का बिल। अपनी जेब के खर्चे। रोज़ गार्डन के पास लिए गए कमरे का किराया। घर का राशन। बहुत सी चिंताएं थी। मन में गिला शिकवा सा भी आ गया और मन में उठा सवाल, "गणेश जी आप ने हमारे लिए सिर्फ चाय का बिल ही देना था क्या? अब बाकी सब का हम क्या करें? अब किस से मांगें कुछ और?" सवाल हमारे दिल और दिमाग से निकल कर शायद रुक रही ठंडी ठंडी हवा में गम हो गया।
जिस पत्रकार की बात कर रहा हूं उसके नाम का ज़िक्र फिर कभी सही। फ़िलहाल नाम का ज़िक्र यहां उचित भी नहीं लग रहा क्यूंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आघात जैसा महसूस होने का चोटिल सा अहसास हो सकता है। फिर भी काम चलाने को आप उसे एस एस डी कह सकते हैं अर्थात शुद्ध अंग्रेजी में SSD होगा।
हम अधिकतर दोस्त उसे आम तौर पर इसी तरह के एक अन्य नाम से बुलाया करते थे। उसने ज़मीनी हकीकतों को नज़दीक से देखा था। हर कोई सच का सामना नहीं कर पाता। कई हकीकतों को कई लोगों ने खुद भी बेहद नज़दीक से देखना चाहा लेकिन बहुत से ऐसे सच वक़्त और हालात ने भी उनके सामने ला रखे जिनकी कल्पना उन्होंने सपने में भी नहीं की थी। इसलिए ज़िंदगी के रंग बहुत अजीब से भी लगने लगते हैं।
एक दिन हम कहीं जा रहे थे। दोनों की जेब भी खाली थी और ऊपर से स्कूटर अचानक रुक गया। तेल की टैंकी भी खाली हो गई थी। उस टूटे फूटे स्कूटर ने हमारा बहुत साथ दिया था। उसका सफेद रंग था इसलिए हम उसे चिट्टा घोड़ा कहा करते। अपने घोड़े को इतनी शाबाशी तो कोई तांगेवाला भी न देता होगा जितनी शाबाशी उस टूटे फूटे सफेद स्कूटर को हम दिया करते थे।
कुछ कदम तक स्कूटर को ठेलते हुए पैदल चल कर जब सांस फूलने लगी तो एक साथ दो नाम हमारे ध्यान में आये। सोचा इनसे पैसे मांग लेते हैं। उन दिनों दस रूपये में तेल डलवा कर हम इतना खुश हो लेते थे कि न जाने कितनी मंज़िलें सर कर ली हों। ज़्यादा बड़ी बात यह होती कि बहुत ही मेहनत से लिखी खबर को फैक्स वाले पीसीओ तक पहुंच कर अख़बार के दफ्तर प्रेषित कर सकेंगे। खबर को अगले दिन की अख़बार में कितनी जगह मिलती है इसकी इंतज़ार भी कम रोमांचिक नहीं होती थी। खैर जब तेल खत्म हुआ तो उस समय हम लुधियाना की घुमार मंडी में के इलाके में थे और पहुंचना था प्रीत पैलेस से कुछ आगे स्थित दीवान पीसीओ पर।
सो इस मकसद के लिए एक जानकार से मैंने पैसे मांगें और दुसरे से एस एस डी ने। हम तो यह सोच कर दोनों के पास अलग अलग गए थे तांकि अगर एक ने इंकार किया तो दूसरा दे देगा। लेकिन यहां तो दोनों से दोनों को ही मिल गए। हम सोच रहे थे कि दस रुपयों का तेल डलवाने के बाद अब पांच रूपये के दो दो कुलचे छोले खा लिए जाये और पांच रूपये की चाय पी ली जाये। यूं तो उन दिनों पांच रूपये के तीन कुलचे छोले आते थे लेकिन रोज़ का लिहाज़ था और हमें लगता था कि आज पांच रुपयों के वह चार कुलचे छोले दे देगा। उसने सचमुच दे भी दिए। इससे थोड़ा भूख शांत होने की उम्मीद थी।
इतने में ही एक हाथी दूर से सड़क का मोड़ मुड़ता हुआ दिखाई दिया और एस एस डी ने दस का वही इकलौता नोट हाथी वालों के साथ चलते काफिले की तरफ बढ़ा दिया यह कह कर कि गणेश जी हमारे दुःख दर्द दूर करेंगे। कमाल की बात कि उस हाथी के साथ चल रहे साधु बाबाओं का हाथ नोट तक पहुंचने से पहले हाथी ने सूंढ़ लम्बी करके वह दस रूपये का नोट पकड़ लिया। सीन बहुत ही अच्छा बन गया था लेकिन मुझे गुस्सा बहुत आया। इसी दस रूपये वाले नोट के दम पर तो हमने चाय भी पी ली थीऔर छोले कुलचे भी खा लिए थेअब इसके पैसे कहां से देंगें। दस का नोट तो अब गणेश जी को दे दिया।
मुझे गुस्से में आया देख कर एस एस डी बोला बाबा जी चिंता मत करो। मुझे उन दिनों सभी लोग बाबा जी कहा करते थे। एस एस डी ने अपनी बात जारी रखी। गणेश जी सब ठीक कर देंगें। हाथी जी का और उनको पालने वाले काफिले वालों का खर्चा भी तो इसी तरह चलता है। हमारे खर्चे के लिए भी गणेश जी कुछ सोचते होंगें। मुझे एस एस डी कभी भी इतना गंभीर नहीं लगा था। मुझे लगा सिख परिवार में पैदा होने के बावजूद सिगरेटें पीते पीते यह एस एस डी अब पूरी तरह हिन्दु रंग में रंग गया है। हालांकि इसी एस एस डी ने सिख संघर्ष पर बनी एक जानीमानी और बहुचर्चित फिल्म में भी सक्रियता से योगदान दिया। उन दिनों तो यही लगने लगा था कि कहीं एस एस डी बाकायदा अमृत छक कर सिंघ तो नहीं सज गया। उसके बारे में आ रहे ख्यालों के साथ साथ ही यह भी महसूस होने लगा कि दुनिया की आर्थिकता कितनी गहराई से आपस में जुड़ी हुई है। कुदरत एक दुसरे को एक दुसरे का सहायक बनाये रखती है। एस एस डी के "प्रवचनों" का मनन करते हुए चाय के आखिरी घूंट मैं इसी चिंता के साथ पी रहा था कि अब चाय समाप्त होने के बाद चाय वाले को पैसों के उधार चक्कर कैसे कहना है! चाय की चुस्कियां लेते लेते मैं चाह रहा था कि चाय का गिलास तब तक खत्म न हो जब तक चाय वाले को आज फिर उधारी वाली बात कहने की हिम्मत मुझमें नहीं आ जाती।
इतने में ही हमारे दो तीन अमीर दोस्त उधर आ निकले और हमारे औपचारिकता वश मना करने के बावजूद सारे का सारा बिल उन्होंने ही दे दिया। मुझे यह सब किसी करिश्मे से कम नहीं लग रहा था। बिल अदा हो चुका तो मुझे खत्म हो चुकी चाय का स्वाद अब आया। सोचा इसी ख़ुशी में चाय का एक कप और पी लिया जाए लेकिन मन में आया लालच अच्छा नहीं होता। यूं भी अभी बाकी बहुत से बिल बकाया थे। फैक्स का बिल। अपनी जेब के खर्चे। रोज़ गार्डन के पास लिए गए कमरे का किराया। घर का राशन। बहुत सी चिंताएं थी। मन में गिला शिकवा सा भी आ गया और मन में उठा सवाल, "गणेश जी आप ने हमारे लिए सिर्फ चाय का बिल ही देना था क्या? अब बाकी सब का हम क्या करें? अब किस से मांगें कुछ और?" सवाल हमारे दिल और दिमाग से निकल कर शायद रुक रही ठंडी ठंडी हवा में गम हो गया।
चाय वाली दुकान के उस गर्म माहौल से बाहर निकलते ही हवा की ठंडक फिर से चेहरे पर महसूस हुई तो साथ ही वहां चल रहे ट्रांज़िस्टर पर एक पुराना गीत bhi शुरू हो गया,
"जहां ठंडी ठंडी हवा चल रही है--
किसी की मोहब्बत वहां जल रही है.....!"
मैंने एस एस डी से कहा ज़रा रुको यह गीत पूरा सुन लेने दो। जवाब में वह बोला जिसका दिल आपके लिए या जिसके लिए आपका दिल जल रहा है न वह पीएयू के जर्नलिज़्म डिपार्टमेंट वाली कैंटीन पर आपका इंतज़ार कर रही है। मुझसे उसका झगड़ा चल रहा था मैं बहुत ही हैरान भी हुआ और पूछा तुम्हे कैसे मालूम?
जवाब में एस एस डी ने कहा आज सुबह टेलीफोन पर बात हुई थी। आज आपका झगड़ा सुलझाना है। आज गुस्सा छोडो और उसके साथ चाय पी लो। साथ में केक और पेस्ट्री का प्रबंध भी होगा। आज पार्टी मेरी तरफ से। मन में तुरंत ख़ुशी, उत्साह और हैरानी की मिलीजुली सी लहर भी उठी। वह उन दिनों एक अंग्रेजी अख़बार में काम करती थी और कार में आती जाती थी। कभी कभी उसकी कार और कोठी देख कर मन में इंफियरिटी कम्प्लेक्स भी आता लेकिन जल्द ही बात आई गई हो जाती।
हम उस तरफ जाने के लिए स्कूटर स्टार्ट कर रहे थे कि अचानक कांग्रेस के चुनावी इंचार्ज रह चुके प्यारा सिंह ढिल्लों हमारे सामने हमारे बिलकुल पास आ कर रुके। एक बार फिर चाय का आर्डर उन्होंने भी दे दिया। हमने कहा भी कि हमने चाय पी है लेकिन वह कहने लगे कुछ ज़रूरी बात करनी है बैठ कर ही हो सकेगी बाकी चाय का क्या है यह तो सर्दी में पता ही नहीं लगता।
वहां बैठते ही उन्होंने हमें चुनाव के दिनों में प्रकाशित हुए विज्ञापनों के बाकी बचे पैसे दे दिए जो काफी देर से उनकी पार्टी की तरफ रुके हुए थे। अब हम दोनों को पच्चीस पच्चीस सो रूपये मिल चुके थे। उस ज़माने में यह रकम बहुत बड़ी थी। इसके साथ ही हमें पंख लग गए। हमने उन्हें आभार व्यक्त किया। फैक्स का बिल दिया। तेल भी और डलवाया और घर का कुछ राशन भी लिया। खबरें लिखने का जोश फिर से दोगुना हो गया। इसके साथ ही समझ आया कि गणेश जी को दिए दस रूपये व्यर्थ नहीं गए थे। वे कितना कुछ ले कर लौटे। उसी दिन यह भी समझ आया कि हम सभी आपस में किसी अदृश्य तार से जुड़े हुए होते हैं। हम दूसरों का ध्यान रखेंगे तो दुसरे भी हमसे इसी तरह पेश आएंगे। हम सभी किसी न किसी कुछ लगते हैं।
मुझे यह घटना और बाकी सब कुछ पूरी तरह भूल चुका था लेकिन अचानक एक दिन नामधारी समुदाय के सद्गुरु ठाकुर दलीप सिंह जी के प्रवचनों को सुनते हुए याद आया कि ऐसी संवेदना, ऐसा अहसास केवल भारत में ही सम्भव है। पत्थर में भी भगवान का अहसास कर लेना, चांद को भी मामा कह कर पुकारना, धरती को मां कहना, पहाड़ों में भी ईश्वरीय सत्ता को महसूस कर लेना, वायु में भी देवता की शक्ति को महसूस करना, जल में भी दिव्यता से भरी शक्ति का पान करना क्या ऐसी आस्था कहीं और मिलती है? है न मेरा भारत महान! क्या दुनिया के किसी और कोने में ऐसा विश्वास कहीं मिलता है? ठाकुर जी कहते हैं है तो सारी दुनिया उसीके रंग में रंगी हुई लेकिन भारत पर भगवान की विशेष कृपा रही है। हमारे कर्मों ने ही समाज की दुर्दशा की है। पूजा, पाठ और पवित्रता के जीवन को अपनाते ही उसकी कृपा बरसनी शुरू हो जाती है।
हम उस तरफ जाने के लिए स्कूटर स्टार्ट कर रहे थे कि अचानक कांग्रेस के चुनावी इंचार्ज रह चुके प्यारा सिंह ढिल्लों हमारे सामने हमारे बिलकुल पास आ कर रुके। एक बार फिर चाय का आर्डर उन्होंने भी दे दिया। हमने कहा भी कि हमने चाय पी है लेकिन वह कहने लगे कुछ ज़रूरी बात करनी है बैठ कर ही हो सकेगी बाकी चाय का क्या है यह तो सर्दी में पता ही नहीं लगता।
वहां बैठते ही उन्होंने हमें चुनाव के दिनों में प्रकाशित हुए विज्ञापनों के बाकी बचे पैसे दे दिए जो काफी देर से उनकी पार्टी की तरफ रुके हुए थे। अब हम दोनों को पच्चीस पच्चीस सो रूपये मिल चुके थे। उस ज़माने में यह रकम बहुत बड़ी थी। इसके साथ ही हमें पंख लग गए। हमने उन्हें आभार व्यक्त किया। फैक्स का बिल दिया। तेल भी और डलवाया और घर का कुछ राशन भी लिया। खबरें लिखने का जोश फिर से दोगुना हो गया। इसके साथ ही समझ आया कि गणेश जी को दिए दस रूपये व्यर्थ नहीं गए थे। वे कितना कुछ ले कर लौटे। उसी दिन यह भी समझ आया कि हम सभी आपस में किसी अदृश्य तार से जुड़े हुए होते हैं। हम दूसरों का ध्यान रखेंगे तो दुसरे भी हमसे इसी तरह पेश आएंगे। हम सभी किसी न किसी कुछ लगते हैं।
मुझे यह घटना और बाकी सब कुछ पूरी तरह भूल चुका था लेकिन अचानक एक दिन नामधारी समुदाय के सद्गुरु ठाकुर दलीप सिंह जी के प्रवचनों को सुनते हुए याद आया कि ऐसी संवेदना, ऐसा अहसास केवल भारत में ही सम्भव है। पत्थर में भी भगवान का अहसास कर लेना, चांद को भी मामा कह कर पुकारना, धरती को मां कहना, पहाड़ों में भी ईश्वरीय सत्ता को महसूस कर लेना, वायु में भी देवता की शक्ति को महसूस करना, जल में भी दिव्यता से भरी शक्ति का पान करना क्या ऐसी आस्था कहीं और मिलती है? है न मेरा भारत महान! क्या दुनिया के किसी और कोने में ऐसा विश्वास कहीं मिलता है? ठाकुर जी कहते हैं है तो सारी दुनिया उसीके रंग में रंगी हुई लेकिन भारत पर भगवान की विशेष कृपा रही है। हमारे कर्मों ने ही समाज की दुर्दशा की है। पूजा, पाठ और पवित्रता के जीवन को अपनाते ही उसकी कृपा बरसनी शुरू हो जाती है।
मुझे यह बातें कभी जचती और कभी नहीं भी जचती लेकिन एक दिन तो हद हो गयी। एक धार्मिक आयोजन में ठाकुर जी के काफी नज़दीक खड़ा था। किसी ख़ास दृश्य को कैमरे में कैद करने के लिए। किसी श्रद्धालु ने अपनी सभी जेबें टटोल कर दस रूपये का मैला कुचैला सा नोट निकाला और ठाकुर जी के सामने रख दिया। श्रद्धालु की उम्र 50 के होगी। मुझे उस नोट की हालत देख कर कुछ घृणा सी हुई। इतना मैला कुचैला नोट! पसीने से भीगा हुआ! क्या इसने यही नोट यहां माथा टेकना था?
वह तो चला गया लेकिन मेरा मन अजीब सा बना रहा। मेरे मन की भावना और चेहरे के हावभाव को भांपते हुए ठाकुर जी बोले यह दस रूपये का नोट इसकी मेहनत की कमाई का अनमोल हिस्सा है। यह दस लाख रुपयों से भी बढ़ कर है। गरीब मज़दूर जब एक पैसा भी दे तो वह अनमोल होता है। इसी को भाग लगते हैं। देखना एक दिन यही शख्स कितने पैसे बनेगा। मेरे मन की आशंका जाने का नाम नहीं ले रही थी। बहुत देर तक मैं हैरानी भरे सदमे की स्थिति में रहा।
मैं कैमरा लिए कवरेज कर रहा था कि अचानक ही ठाकुर जी ने मुझे नज़दीक आने का इशारा किया। पास हुआ तो उन्होंने कान में कहा याद है एक बार गणेश जी ने आप लोगों के दस रूपये बहुत स्नेह और सम्मान से कबूल किये थे। उसके बाद आपका भी सब नक्शा ही बदल गया था।
वह तो चला गया लेकिन मेरा मन अजीब सा बना रहा। मेरे मन की भावना और चेहरे के हावभाव को भांपते हुए ठाकुर जी बोले यह दस रूपये का नोट इसकी मेहनत की कमाई का अनमोल हिस्सा है। यह दस लाख रुपयों से भी बढ़ कर है। गरीब मज़दूर जब एक पैसा भी दे तो वह अनमोल होता है। इसी को भाग लगते हैं। देखना एक दिन यही शख्स कितने पैसे बनेगा। मेरे मन की आशंका जाने का नाम नहीं ले रही थी। बहुत देर तक मैं हैरानी भरे सदमे की स्थिति में रहा।
मैं कैमरा लिए कवरेज कर रहा था कि अचानक ही ठाकुर जी ने मुझे नज़दीक आने का इशारा किया। पास हुआ तो उन्होंने कान में कहा याद है एक बार गणेश जी ने आप लोगों के दस रूपये बहुत स्नेह और सम्मान से कबूल किये थे। उसके बाद आपका भी सब नक्शा ही बदल गया था।
पहले तो मैं कुछ सकपकाया लेकिन बाद में सब याद आ गया। मेरी आँखें भर आई। यह बात भी आई गई हो गई लेकिन आज सोचा इसे लिख कर सहेज ही लूं।
मैं हैरान था करीब बीस वर्षों से भी अधिक पुरानी यह बात ठाकुर जी कैसे जानते हैं? ठाकुर जी की बात सुन कर मैं काफी देर हैरानी भरे अजीब से सदमे में रहा। मुझे एक बार फिर अहसास हुआ कि समस्त दुनिया किसी परमसत्ता की देखरेख में ही है। हम मानें या न मानें लेकिन बहुत कुछ ऐसा होता है जो हमारे किये से कभी नहीं होता लेकिन जब ऊपर वाला चाहे तो बिगड़ा हुआ काम भी झट से बन जाता है। इसी सिलसिले की कुछ और बातें अलग पोस्टों में भी होंगीं। फ़िलहाल इतना ही। --मीडिया लिंक रविंद्र
मैं हैरान था करीब बीस वर्षों से भी अधिक पुरानी यह बात ठाकुर जी कैसे जानते हैं? ठाकुर जी की बात सुन कर मैं काफी देर हैरानी भरे अजीब से सदमे में रहा। मुझे एक बार फिर अहसास हुआ कि समस्त दुनिया किसी परमसत्ता की देखरेख में ही है। हम मानें या न मानें लेकिन बहुत कुछ ऐसा होता है जो हमारे किये से कभी नहीं होता लेकिन जब ऊपर वाला चाहे तो बिगड़ा हुआ काम भी झट से बन जाता है। इसी सिलसिले की कुछ और बातें अलग पोस्टों में भी होंगीं। फ़िलहाल इतना ही। --मीडिया लिंक रविंद्र
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