Wednesday, 15 April 2015

इस रंग बदलती दुनिया में क्या खोते जा रहे हैं हम?

खुद को ही खुद का होश नहीं और क्या बचा ? 
ज़रा सी हवा बदली तो लोग भी साथ ही बदलने लगते हैं। गिरगिट की तरह रंग बदलना आज के युग की क्वालिफिकेशन हो गयी है। कभी समय था जब लोग अपनी पार्टी को अपनी मां  की तरह समझते थे लेकिन आज़ादी के बाद विकसित हुई सियासत में पार्टी बदलना एक आम सी बात है। जिन दलों को विचारधारा आधारित दल समझा जाता था उनमें भी इसका रंग देखने को मिल रहा है। ऐसे हालात में पाताली बाबा ने FB पर एक रचना पोस्ट की आज ही अर्थात कुछ समय पूर्व Wednesday, 15 April 2015 at 20:48 को। आज के युग और आज की मानसिकता के संबंध में यह काफी कुछ बताती है। पाताली बाबा लिखते हैं:--
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने एक संस्मरण लिखा है कि उनको वाइसराय ने सम्मान के लिए बुलाया था।
गरीब आदमी थे।
पुराना बंगाली ढंग का कुरता, कमीज, धोती पहनते थे।
फटे-पुराने कपड़े थे।
मित्रों ने कहा कि वाइसराय की सभा में इन कपड़ों में जाना उचित नहीं, अच्छे कपड़े बना देते हैं।
बात उनको भी जंची। एक-दो दफे इनकार भी किया।
लेकिन फिर उनको भी लगा कि ठीक है, तो कपड़े बनवा लिए।
कल सुबह वाइसराय की सभा में जाने को हैं,
उसके एक दिन पहले की घटना है।
सांझ को लौटते थे बगीचे से टहल कर।
सामने ही एक मुसलमान अपने कपड़े पहने हुए--
चूड़ीदार पायजामा, शेरवानी, हाथ में छड़ी लिए--
बड़े शौक से शाम की चहलकदमी करते हुए जा रहा है घर वापस।
एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा,
मीर साहिब, आपके घर में आग लग गयी, जल्दी करिए।
लेकिन वह वैसे ही चलता रहा, चाल में जरा भी फर्क न आया--जरा भी!
जैसे नौकर आया ही नहीं, जैसे नौकर ने कुछ कहा ही नहीं;
जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो; वह जैसा था, ठीक वैसा ही रहा।
सुर जरा भी न बदला उसका।
नौकर समझा कि शायद मालिक ने सुना नहीं;
क्योंकि आग लगने का मामला है। उसने कहा कि आप समझे या नहीं?
सुना आपने या नहीं? किस विचार में खोए हैं? मकान में आग लग गयी!
नौकर कंप रहा है, पसीना-पसीना है, बड़ा उत्तेजित है।
और नौकर है! उसका कुछ भी नहीं जल रहा है।

उस मुसलमान ने कहा, सुन लिया!
लेकिन मकान में आग लग गयी,
इस वजह से क्या जिंदगी भर की चाल बदल दें?
..........................आते हैं। 
ईश्वरचंद्र पीछे ही थे।
उन्होंने सुना तो बड़े हैरान हुए।
तो उन्होंने भी सोचा कि जिंदगी भर के कपड़े बदलें वाइसराय के लिए!
और एक यह आदमी है...वह वैसे ही...!
पीछे गए उसके। देखें, यह आदमी अनूठा है।
वह आदमी वैसे ही गया, जैसे वह रोज जाता था।
वही चाल रही, वही छड़ी का हिलना रहा।
घर पहुंच गया। आग लगी है। उसने नौकरों से कह दिया कि बुझाओ!
और स्वयं बाहर खड़ा रहा। सब इंतजाम कर दिया,
लेकिन उस आदमी में रत्ती भर भी फर्क नहीं है।

ईश्वरचंद्र ने लिखा है कि मेरा हृदय श्रद्धा से झुक गया।
ऐसा आदमी तो मैंने देखा नहीं।
यह किस चीज को सम्हाल रहा है?
..........उसका नाम सुरति है;
..........उसका नाम स्मृति है।
यह एक बात को सम्हाले हुए है कि अपने होश को नहीं खोना है।
जो हो रहा है, हो रहा है। जो किया जा सकता है, वह कर रहे हैं।
जो करने योग्य है, वह किया जाएगा।
लेकिन स्मृति कभी भी खोने योग्य नहीं है।
इस दुनिया में ऐसी कोई भी चीज इतनी मूल्यवान नहीं है,
जिसके लिए तुम सुरति को खोओ। 
पाताली बाबा
लेकिन तुम छोटी-छोटी चीजों में खो देते हो।
एक रुपए का नोट गिर गया,
और देखो तुम कैसे पगला जाते हो।
एकदम ढूंढ़ रहे हैं पागल की तरह!
जहां नहीं हो सकता, वहां भी ढूंढ़ रहे हो।

किसी आदमी को देखो!
घर में उसकी कोई चीज खो गयी।
चीज बड़ी हो..........
वह छोटा सा डिब्बा भी खोल कर देख रहा है
कि शायद...।
तुम स्मृति को खोने को तैयार ही हो।
खोने को तैयार हो, यह कहना भी शायद ठीक नहीं।
तुम्हारे पास है ही नहीं, तुम खोओगे क्या?

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